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आज अचानक ही उसने पूछ लिया, “हर वक़्त करती रहती हो, अपने शहर की बात, तुम्हारे शहर में ऐसा क्या है?”
मैंने कहा –
मेरी तो सुबह-शाम उस शहर में है,
मेरे दिन-रात उस शहर के हैं,
मेरी हँसी उस शहर में है, और गम भी वहीं है,
मेरी ज़िम्मेदारी और जवाबदारी उस शहर में है ,
मेरी इबादत भी उस शहर की है, बगावत भी उस शहर से है,
मेरी कमज़ोरी भी उस शहर से है, ताकत भी तो उसी शहर से है ,
यादों का वो पुलंदा उस शहर का है,
क्यूँकि ये ज़िन्दगी भी तो उसी शहर की है और शायद मौत भी वहीं की हो…
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मुझे तो अच्छा लगता है
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