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प्रेम में स्वीकृति

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“मुझे तुमसे प्रेम है!” या “मुझे तुमसे प्रेम है और क्या तुम्हें भी है?”

क्या प्रेम के इज़हार में केवल इज़हार काफ़ी नहीं है? आखिर, इज़हार के साथ ये प्रश्न चिन्ह क्यों होता है? क्यों हर बार हम अपने इज़हार के साथ, सामने वाले व्यक्ति पर हामी या इनकार का बोझ डाल देते हैं?

“अगर तुम्हें मुझसे प्रेम है तो क्यों है?” ये प्रश्न मैंने हर उस व्यक्ति से पूछा जिसने मुझसे इस बात का इज़हार किया। मैं भी सब से कोई भिन्न नहीं हूँ, समान अपेक्षाएं, कौतूहल और भावनाओं के सागर से ओत-प्रोत मैंने भी प्रेम को कई दफ़ा प्रश्नों के तराज़ू में तोला है।  

मगर, आज सहसा मेरे मन में एक प्रश्न उठा की हमें प्रेम में स्वीकृति की आवश्यकता क्यों है? 

क्या प्रेम केवल प्रेम नहीं हो सकता? आखिर प्रेम को किसी कारण की ज़रूरत ही क्या है? क्यों प्रेम के बदले में हम प्रेम की अपेक्षा रखते हैं? 

क्योंकि सच में प्रेम तो वही है जहाँ आपको किसी से अकारण ही आसक्ति हो। नीतिबद्ध और कारण बद्ध तो केवल आयोजन होते हैं। प्रेम को कहाँ कोई अनुशासन का बंधन बांध पाया है। तभी तो प्रेम में अक्सर हम तर्कों का त्याग कर देते हैं। 

अगर किसी को सच में तुमसे प्रेम है तो वो उसका यथार्थ है, तुम्हारी स्वीकृति या अस्वीकृति से वो प्रेम का बंधन खत्म नहीं होगा। प्रेम में लिप्त किसी एक व्यक्ति के मन में वो भावनाएं अमर रहेंगी। जहाँ प्रेम में प्रेमी युगल की स्वीकृति उस बंधन को मजबूत करती है, वहीं अस्वीकरती की अवस्था उसे हर बार थोड़ा – थोड़ा कर तोड़ती रहती है। 

स्वीकृति हो या अस्वीकृति, आप किसी से उसके प्रेम करने का हक़ नहीं छीन सकते! मानव प्रवृत्ति के अनुसार, हर इज़हार के साथ स्वीकृति की खुशी और अस्वीकृति का भय तो बना रहता है, मगर क्या प्रेम की अस्वीकृति पर प्रेम की उपेक्षा अनिवार्य है?

“मैंने प्यार से समझा कर देख लिया, अब मेरे पास केवल उपेक्षा की एक रास्ता बचा है।” मैंने भी कुछ वर्षों पूर्व किसी के प्रेम का तिरस्कार करते वक़्त यही सोच था। और आज मैं यकीनन मानती हूँ की ये सोच पूर्णतः गलत थी, निराधार थी। 

अगर प्रेम की अस्वीकृति से ज़्यादा किसी बात से किसी को ठेस पहुँचती है तो वो है प्रेम का तिरस्कार। चूंकि जो घर आपने बनाया ही नहीं, आखिर आप उस घर को तोड़ने के आधिकारी कैसे हो सकते हैं? प्रेम किसी को जितना मजबूत और सरल बनाता है, ये उपेक्षा उतना कठोर बना देती है। इसलिए प्रेम की अपेक्षा गर आप प्रेम न दे पाएं, तो उपेक्षाकर्ता भी न बनें। 

वक़्त के साथ, प्रेम की स्वीकृति और अस्वीकृति की मानो ज़रूरत खत्म हो जाती है। अगर कुछ शेष रह जाता है तो प्रेम की अनुभूति, वही अनुभूति जिसने आपको अपने आप से मिलवाया था और खुद के अंदर के प्रेम को ढूँढना सिखाया था। 

अभी तक मुझे तो यही महसूस हुआ, की हर दफ़ा प्रेम आपको खुद के करीब लाता है और स्वयं को स्वीकार करना सिखाता है। आपकी सहमति, असहमति, अथवा विचार आप कॉमेंट में साझा कर सकते हैं। 

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