रिश्ते बनाने में थोड़ा ही वक़्त लगता है जबकि रिश्ते निभाने में ज़िंदगी निकल जाती है। अब भले ये खून के रिश्ते हों या माने हुए रिश्ते, निभाना तो दोनों को ही कठिन है। एक भारतीय होने के नाते आप जानते होंगे हमारे यहाँ खून के रिश्तों से ज़्यादा हमारे घर वालों के मुहबोले रिश्तेदार होते हैं। और जितने ज़्यादा रिश्तेदार उतने ही ज़्यादा लोगों की बातें सुननी होती हैं और उतने ही लोगों की राय भी मिलती है।
कितने रिश्ते होते हैं जो हमारे देखते-देखते बचपन से बड़े होने तक हमारी ज़िंदगी के पन्नों से गायब हो चुके होते हैं। कई बार तो कितने ही पारिवारिक रिश्ते होते हैं जो वक़्त के साथ केवल कहने को रह जाते हैं। पिछले कुछ दिनों में, मैंने घर की अलमारियों की सफाई करते वक़्त काफ़ी पुरानी एल्बम देखी और कई सारे लोगों को और उनसे जुड़े रिश्तों को एल्बम से गायब पाया।
तब से मेरे मन में एक सवाल घर कर के बैठा है कि आखिर ये रिश्ते कहाँ गायब हो गए? मम्मी और मौसी से कुछ कहानियाँ सुनी और पिछले कुछ वर्षों के खुद के तजुर्बे से पाया की “अब किसी के पास वक़्त नहीं है”।
मगर क्या सच में वक़्त नहीं है? क्योंकि जब उसी फहरिस्त में से कोई हम से बाजार में टकरा जाता है तो हम तपाक से कह देते कुछ दिनों पहले तुम्हें ही याद कर रहे थे। पर फिर याद कर रहे थे, तो याद कर लेते न! तो मुझे ये कहना नहीं जँचता की किसी इंसान के लिए वक़्त नहीं है, सच तो ये है कि अब वो इंसान आपकी और आप उसकी प्राथमिकता नहीं हैं!
याद करने के लिए और आपकी याद आयी इस बात का एहसास दिलाने के लिए आखिर क्या लगता है? बस एक कॉल… और अगर दोनों लोग ही उस एक कॉल का वक़्त नहीं निकाल पाएं तो धीरे-धीरे रिश्तों में दूरी आ जाती है। शायद उसके बाद शहरों और घरों के बीच की दूरी का कोई मोल नहीं रह जाता। बड़े-बड़े शहरों में तो अक्सर लोग एक ही शहर में हो कर भी सालों तक एक-दूसरे से मिल नहीं पाते हैं, या उनकी भाषा में कहो तो वक़्त नहीं निकाल पाते हैं…
रिश्तों से बढ़ती दूरी – लॉंग डिस्टेंस रिलैशन्शिप
रिश्तों को निभाने में वक़्त लगता है और चूंकि वक़्त होता नहीं है, कैसे तो निकालना पड़ता है, शायद इसलिए ही सब रिश्तों में हुई दूरी के लिए वक़्त को ज़िम्मेदार ठहरा देते हैं।
अक्सर सुना है और कहीं न कहीं मुझे भी लगता था कि लॉंग डिस्टेंस रीलैशन्शिप मेरे बस का न है। यहाँ केवल मेरा तात्पर्य प्रेमी-प्रेमिका वाले रिश्तों से नहीं बल्कि हर तरह के रिश्तों से है, जब आप अपनों से दूर रह रहे हैं। जब आप पढ़ाई या नौकरी के सिलसिले में दूसरे शहर जाते हैं तो आप अपने दोस्तों, परिवार के लोगों और प्रियजनों से दूर ही तो हो रहे होते हैं।
मगर फिर हम अक्सर प्रेमी-प्रेमिका से ही भौतिक दूरी को दूरी क्यूँ मानते हैं?
इस सोच के पीछे मुझे लगता है कि जब हम अपने घर से और अपनों से दूर रहते हैं तो हम वहाँ कुछ नए अपने तलाशने लगते हैं। उसकी वजह है कि जब हम दूर रह रहे हैं तो रिश्तों के लिए थोड़ा ज़्यादा टाइम मेनेजमेंट करना पड़ता है। उठने से लेकर सोने तक, ऑफिस से लेकर घर तक हम पूरे वक़्त व्यस्त नहीं होते। मगर जब हम फ्री हों, सामने वाला भी फ्री हो वो जरूरी नहीं होता।
केवल प्रेमी युगल वाले रिश्तों में आपको अपना स्थान खो जाने की असुरक्षा होती है। कभी आपकी मम्मी 3-4 कॉल मिस कर दें तो आप सोचते हैं, वो कहीं व्यस्त होंगी मगर वहीं आपका पार्टनर अगर 3-4 कॉल मिस कर दे तो आप उसके किसी और के साथ होने के 5-6 कथानक सोच चुके होते हैं।
यह फंडा कुछ तो अजीब है, मगर जो है यही है।
क्या लॉंग डिस्टेंस रिलेशनशीप ही रिश्तों में दूरी का कारण है?
नहीं! बिल्कुल भी नहीं।
ये जरूर सही बात है कि अगर शहरों में दूरी है तो आपको रिश्तों को संभालने में थोड़ी ज़्यादा मेहनत करनी पड़ेगी। आपसे कोसों दूर रह रहे आपके माता-पिता, भाई-बहन, दोस्त और आपके प्रियजनों को ये नहीं पता की किस वक़्त क्या कर रहे हैं, इस कारण आपकी झुंझलाहट, खुशी, दुख, अकेलेपन या व्यस्तता को समझना सामने वाले के लिए आसान नहीं होगा।
शायद यही कारण है कि शहरों की बीच के दूरी अक्सर रिश्तों के बीच दूरी खड़ी कर देती है। चूंकि आप अपने प्रियजनों के सामने न हो कर भी वैसे ही प्रतिक्रिया देते हैं और चाहते हैं जैसे आप उनके सामने हों। भावनाओं का यही आदान-प्रदान जब सही ढंग से नहीं होता तो रिश्तों में दूरी आ जाती है। वहीं जब आप किसी अपने को अपने आसपास चाहते हैं और वो वहाँ नहीं होता तो धीरे-धीरे रिश्तों में दूरी बनाने लगते हैं।
मगर अचरज की बात यह है रिश्तों से दूरी न होने पर भी रिश्तों में दूरी आ जाना आजकल आम बात है। जब भी हम दूसरों को खुद से कम आँकने लगते हैं, हम अपनों की ही कीमत भूल जाते हैं। और जब आप किसी के लिए अपनापन ही महसूस ही नहीं करेंगे, तो उनकी इज़्ज़त आखिर कैसे ही कर पाएंगे। जब आप अगले की इज़्ज़त नहीं करेंगे तो खुद-ब-खुद ही आप उनसे दूर होते चले जाएंगे और आपको पता भी नहीं पड़ेगा की आखिर कब आप अपने किसी करीबी रिश्ते से इतना दूर हो गए।
उपसंहार
अंततः बात तो यही है कि रिश्तों से कितनी भी दूरी क्यूँ न हो, कोशिश करें की रिश्तों में दूरी न आए। चूंकि रिश्तों से दूरी को तो आप बस, ट्रेन, हवाई जाहज से आ कर मिटा सकते हैं, मगर रिश्तों में एक बार दूरी बन जाए तो कभी खत्म नहीं हो सकती, बल्कि वक़्त के साथ वहाँ गहरी खाई बनती जाती है।