क्या तुम्हें याद है की हमारी बातचीत कैसे शुरू हुई? मुझे तो याद नहीं, शायद तुम्हें याद हो! यही तो होता है ना हमारे बीच, जो मैं भूल जाती हूँ तुम्हें याद होता है और जो तुम भूल जाते, वो बखूबी याद रखती हूँ।
दिन, तारीख़, महीना, पता नहीं। पर, हाँ, वो वाकिया याद है जहाँ से बात-चीत शुरू हुई। मगर, सच में हमारी बातों का सिलसिला इतना लम्बा चलेगा, ये तो नहीं सोचा था।
मुझे याद है तो ये बात की जब पहली बार हमारी बातचीत शुरू हुई थी, तो बातें ख़त्म नहीं हुई थीं। घंटों तुमसे बात करने के बाद भी तुम्हें सुनने की इच्छा ख़त्म नहीं हुई थी और मेरी ज्ञान के मोती बाँटने वाली शाला में तुम बोर भी नहीं हुए थे।
हमारी बातों में कुछ पूरा नहीं था। तुम्हारी और मेरी ज़िंदगी का अधूरा ज़िक्र… हम एक-दूसरे को जानते थे, मगर इतना नहीं कि सब पूरा कह पाते थे। वो अधूरा ज़िक्र अधूरा हो कर भी, इतना पूरा था, की मानों हम न समझते हुए भी एक-दूसरे की बातों को काफ़ी कुछ समझ पा रहे थे।
बातों की गहराई से ज़्यादा अधूरापन गहराया हुआ था… मैं खुश थी, तुम खुश थे। सच में, मेरे लिए केवल ये ख़ुशी है, जो बहुत मायने रखती है।
ये खुशी एक-दूसरे को पाने की बिल्कुल नहीं थी, एक-दूसरे के साथ होने की बिल्कुल नहीं थी। खुशी थी तो बस समझे जाने की, बे-पर्दा बातें कह पाने की, और मौन साझा कर पाने की! उस रात कितनी दफ़ा मैं ख़ामोश थी, और कितनी दफ़ा तुम मौन।
वक्त के साथ बातें तो कई लोगों से होती हैं, कई तरह की होतीं हैं, किन्ही से तुम दर्द बाँट सकते हो, किन्ही से ख़ुशियाँ; मगर खामोशी सब के साथ नहीं बाँटी जाती।
ऐसा कोई नियम नहीं है, मगर हर कोई खामोशी को भाँप नहीं पाता। ज़्यादातर लोग मौन को अधूरा और अकेला समझते हैं। मगर खामोशी में कितने शब्द हैं, ये सबको थोड़ी बतलाया जा सकता है।
तुम्हें याद है न, मैं भूल जाती हूँ। तो हमारी बातों के फ़ेहरिस्त में से तुम मुझसे कुछ भी पूछ लो, मुझे याद नहीं। मगर वो केंटिन की पुरानी आवाज़ करती हुई मेज़ पर बैठ कर तुमने जितने क़िस्से सुनाए थे, वो मुझे बखूबी याद हैं। वो तुम्हारी किताबों के किरदार और उनकी कहानियाँ बखूबी याद हैं मुझे, जिन्हें सुनते हुए मैं आँख मूँद लेती थी और तुम मुझे झिड़की लगाते कहते थे की “सो गयी न, मैं ये कहानियाँ तो पेड़ों के लिए पढ़ रहा हूँ?”
अब तक तो तुम्हें पता हो चला है की मैं तुम्हें सताने को ही आँखें मूँदती हूँ। तुम्हारी झिड़की मुझे बहुत लुभाती है। और सच कहूँ तो बंद आँखों के साथ तुम्हारी आवाज़ और कहानियों के साथ हो रहे उसके उतार चड़ाव को महसूस करना और सरल हो जाता है। मुझे तुम्हारे किरदारों से लगाव है, क्योंकि तुम्हारे साथ वो भी कभी-कभी ख़ामोश हो जाते हैं।
यूँ तो मुझे तुम अक्सर chatterbox कह कर चिढ़ाते हो, मगर मुझे खुशी है की तुम मेरी खामोशी को भी बातों की तरह ही समझ पाते हो। बस! वो लम्बे रास्तों की खामोशी, हमारी कॉफ़ी, और तुम्हारी कहानियाँ, ज़िंदगी के पूरे होने का एहसास दिलाने के लिए काफ़ी हैं।